8 दिस॰ 2015

संतोष सबसे बड़ा धन है, विश्वास सबसे बेहतर संबंध है....


            संसार में शायद किसी भी काल में कोई देश या राज्य नहीं रहा होगा जहाँ पाप-भ्रष्टाचार नहीं रहा होगा, और इसका मूल कारण है मानवीय महत्वकांक्षाएँ। उन्हीं महत्वकांक्षाओं की बदौलत संसार में आज तक हजारों युद्ध लड़े गए और लड़े जा रहे है। मानव ने व्यवस्थाओं का निर्माण मनुष्य को खुशहाल बनाने के लिए के लिए किया है। लेकिन क्या किसी भी व्यवस्था से, उस व्यवस्था के भीतर रहनेवाले, सभी लोग एक साथ संतुष्ट हो सकते हैं? यह एक उलझा हुआ प्रश्न है। असंतुष्टि मानव को अपमार्गो की ओर ले चलने का सबसे बड़ा और मुख्य कारण है, इसको समझना होगा।  
          दूसरी ओर यह दर्शन विकसित हुआ है कि बिना महत्वकांक्षा के मानवीय विकास के लिए दूसरा मार्ग ही नहीं हैं। महत्वकांक्षा ही मानव को और मानव समाज को प्रगति के मार्ग पर अग्रेसर करती है। लेकिन यह भी निश्चित है कि महत्वकांक्षी होने के कारण ही स्पर्धा का निर्माण होता है और स्पर्धा के कारण, स्वयं आगे बढ़ने के साथ दूसरों को पीछे धकेलने की प्रवृत्ति का भी निर्माण होता है। वर्तमान युग में  मानव की महत्वकांक्षाओं का संसार विस्तृत होता जा रहा है। आज मानवीय व्यवस्थाओं में परिवर्तन का दौर चल रहा है, प्रत्येक को लगता है कि पुरानी व्यवस्थाओं में खामियाँ थी और उन व्यवस्थाओं को पूर्णतः बदलने की आवश्यकता है। प्रयोग पर प्रयोग चल रहे हैं। सारा विश्व एक प्रयोगशाला के रूप में परिवर्तित हो गया है। मानव जीवन को सुखी करने हेतु सारी कवायद चल रही है। फिर भी आज मानव में  दूसरों की और अपनी इह-लीला समाप्त करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है।  
         हमें समझ लेना होगा कि मात्र व्यवस्थाओं को बदलने से मानव को बदलना आसान नहीं होगा। हमें मानव के भीतर के रिक्त को समझना होगा। और समझना होगा कि वैश्वीकरण, उदारीकरण, बाजारीकरण के युग में जब मानव तथा मानव हित को केन्द्र से हटाकर अर्थप्रधानता को महत्व प्राप्त हो चुका है। हमने साध्य़ को साधन और साधन को साध्य बना लिया है। श्रद्धा और विश्वास के स्थान पर तर्क को प्रधानता दे दी है तब हम और किसी परिणाम की अपेक्षा भी नहीं कर सकते है। गौतम बुद्ध ने कहा था कि स्वास्थ्य सबसे बड़ा उपहार है, संतोष सबसे बड़ा धन है, विश्वास सबसे बेहतर संबंध है। हम महत्वकांक्षा के पूरा न हो पाने की स्थिति में भी अपने आप में विश्वास बहाल करने की आवश्यकता है। जिसके बिना हम यू ही भटकते रह सकते है। अस्तु ।

5 दिस॰ 2015

असहनशीलता और हम भारतीय


असहनशीलता और हम भारतीय

             विश्व में भारत की पहचान एक ऐसे देश के रूप में की जाती है, जहाँ सदियों से  जातियों, धर्मों, पंथों, भाषाओं, रहन-सहन, खान-पान की विविधता वाले लोगों का  साथ-साथ बसेरा है और वे आपस में प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हुए, एक ऐसी संस्कृति का निर्माण करते हैं, जो सभी को साथ ले कर चलने का दर्शन जन्म से ही भारतीयों में विकसित करती हैं, और जिसे हम भारतीय संस्कृति के नाम से जानते हैं। इस संस्कृति को मिटाने का प्रयत्न अनेक बार किया गया, कुछ समय के लिए ऐसी लहरों ने भारतीय संस्कृति में ज्वार-भाटा भी पैदा किया परंतु जल्दी सागर की लहरों की भाँति वे सारे प्रयत्न सागर के गर्भ में समा भी गए। वर्तमान में भी ऐसे ही कुछ प्रयत्न हो रहे हैं, लेकिन इन प्रयत्नों को भारतीय कभी सफल नहीं होने देंगे, यह भी निश्चित है।
           जब भारत महासत्ता बनने की ओर अग्रेसर है, सारी दुनिया में भारत की छवि एक मजबूत देश के रूप में स्थापित हो रही है, तो निश्चित ही कुछ लोगों में आखों में किरकिरी भी पड़ती जा रही है। तब यह भी निश्चित है कि भविष्य में ऐसे अनेक प्रयास किये जाएंगे जिसमें भारत की अखंडता को खंड-खंड किया जा सके। जैसा की आयएसआयएस ने भारत को अनेक टुकड़ों में बाँटने की बात कही। ऐसे सपने अनेक लोगों और देशों ने देखे हैं और देख रहे हैं। अब हम भारतीय लोगों की जिम्मेदारी है कि ऐसे सपने देखनेवाले को मुँह के बल गिराया जाए और अपने देश की अखंडता को सुरक्षित रखे। साथ ही हमारी ये भी बड़ी जिम्मेदारी है कि मीडिया या सोशल मीडिया के माध्यम से  भ्रामक बातों का प्रचार और प्रसार करनेवालों को सच्चाई का आईना दिखाकर चुप रहने के लिए मजबूर किया जाएं।